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“विषकन्या” ऐतिहासिक साक्ष्यों में क्या इनका कोई वर्णन है?

क्या इनका इतिहास में वर्णन है ?
विषकन्याओं का अस्तित्व प्राचीन काल से समाज के हर वर्ग में रहने वाले लोगों के लिए हमेशा कोहतूहल का विषय रहा है। भारत के अनेक क्षेत्रों में इनसे संबन्धित कहानियाँ, किवदंतियाँ और दंतकथाएँ सुनायी देती है। विषकन्याएँ हमेशा से ही एक रहस्य रही हैं। लेकिन क्या वास्तव में विषकन्याएँ होती है? या फिर ये मानव द्वारा रचित एक कोरी काल्पनिक कथाओं की नायिका है, जिसका वास्तविकता में कोई वजूद नहीं था। इन्ही प्रश्नों के उत्तर तलाशने के लिए जब प्राचीन साहित्य का अध्ययन किया गया, तो इनसे संबन्धित कुछ बातें सामने आयीं। प्राचीन साहित्य और मूर्तियों का अध्ययन करने पर पता चलता है, कि मौर्य काल में विषकन्याएँ पैदा नहीं होती थी, बल्कि छोटी सुंदर लड़कियों को उनके माता-पिता की अनुमति से विषकन्या बनाने के लिए राजा या राजनैतिक गुरुओं द्वारा ले लिया जाता था। इसके बाद शुरू होती थी, इनकी कठोर शारीरिक परीक्षा। लेकिन क्या किसी भी लड़की को विषकन्या बनाने के लिए ले लिया जाता था ?, या फिर किसी विशेष गुण वाली बालिकाओं को इस कार्य के लिए चुना जाता था। इसका वर्णन आगे किया गया हैं। विषकन्याओं के बारे सब जानने से पहले आइये जानते हैं विषकन्याओं से जुड़ी हुयी कुछ ऐतिहासिक घटनायेँ।
मौर्य काल में विषकन्याएँ:- प्राचीन इतिहास के अनुसार “चाणक्य” के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कई बार “चन्द्रगुप्त मौर्य” के प्राणों की रक्षा की। जिनमें से कुछ हमले “चन्द्रगुप्त मौर्य” पर विषकन्याओं द्वारा किये गये थे। नन्द वंश के सम्राट “धनानन्द” के एक मंत्री ने छलपूर्वक विजय अभियान से लौटकर आये हुए चन्द्रगुप्त मौर्य के स्वागत में एक विषकन्या को भेजा था। लेकिन किसी तरह से इस बात का पता चाणक्य को लग गया। विषकन्या जैसे ही चन्द्रगुप्त का स्वागत करने के लिए उसके रथ के सामने आई, चाणक्य ने उसे रोक दिया और चन्द्रगुप्त के साथी “राजा प्रवर्तक” से
कहा कि “इस रूपवती स्त्री को तुम स्वीकार करो” राजा प्रवर्तक ने उस सुंदर स्त्री को स्वीकार कर लिया। लेकिन उसको यह नहीं मालूम था, कि यह एक विषकन्या है। उस समय राजा प्रवर्तक युद्ध में चन्द्रगुप्त मौर्य का सहयोगी था। इस लिए युद्ध के समय किए गये वादे के अनुसार राजा प्रवर्तक को आधे राज्य का स्वामी बनाया जाना था। वह विषकन्या बहुत ज़हरीली थी, इसलिए जैसे ही प्रवर्तक ने विषकन्या का हाथ पकड़ा, विषकन्या के हाथों में लगा पसीना उसे लग गया। जिससे प्रवर्तक के शरीर में धीरे-धीरे विष फ़ैल गया और वह बीमार पड़ गया। चन्द्रगुप्त ने राज्य के सभी वैद्यों से राजा प्रवर्तक का इलाज करवाया लेकिन विषकन्या का ज़हर उसके शरीर में इतना फ़ैल चूका था कि अंत में उसकी मृत्यु हो गई। 
इस बारे में कुछ इतिहासकारों का मानना यह है, कि चाणक्य ने जानबूझकर विषकन्या को राजा प्रवर्तक के पास भेजा था। उनका मानना है, कि जब किसी राज्य को दो राजाओं में आधा–आधा बांटा जाता है तो एक दिन उनमें आपस में युद्ध अवश्य होता है। इसलिए चन्द्रगुप्त के प्राणों के लिए राजा प्रवर्तक का मरना जरुरी था। इस पर इतिहासकारों में थोड़ा विवाद है। लेकिन इस घटना के बाद चाणक्य ने
चन्द्रगुप्त को भविष्य में विष के प्रभाव से बचाने के लिए भोजन के साथ बहुत थोड़ी मात्रा में जहर देना शुरू कर दिया था। जिससे यदि चन्द्रगुप्त जाने–अनजाने में भी किसी विषकन्या के संपर्क में आये
तो उससे सुरक्षित रहे। चाणक्य प्रतिदिन उसके भोजन में विष की मात्रा बढ़ाते रहते थे।  
एक दिन जब सम्राट चन्द्रगुप्त भोजन कर रहे थे। तभी उनकी गर्भवती महारानी का आगमन हुआ। महारानी ने चन्द्रगुप्त की थाली में से भोजन का एक कौर उठाकर खा लिया। भोजन में मिले हुए विष के प्रभाव से महारानी कुछ ही क्षणों में मूर्छित हो गई। महारानी के मूर्छित होने का वास्तविक कारण कोई नहीं जानता था। लेकिन इस बात का पता चाणक्य को चल गया कि रानी ने विष मिला भोजन किया
है। उन्होंने तुरंत शल्य–चिकित्सकों को बुलाकर रानी के गर्भ में स्थित बालक को निकलवा लिया। बालक तो बच गया लेकिन महारानी की मृत्यु हो गई। विषैला भोजन करने से बालक पर कोई खास असर नहीं हुआ लेकिन उसके ललाट पर एक नीला निशान ज़रूर बन गया था। माथे पर उभरे नीले निशान के कारण ही चन्द्रगुप्त मौर्य ने उसका नाम “बिन्दुसार” रख दिया। आगे चलकर यही “बिन्दुसार” मौर्य साम्राज्य का सम्राट बना। 
“जन्म कुंडली” के आधार पर विषकन्याओं का चुनाव:- जन्म के समय यदि लड़की की जन्मकुंडली में ‘विषकन्या’ का योग बनता था, तो ऐसी बालिका का विवाह करने में बहुत परेशानी आती थी, ज्योतिष के अनुसार ऐसी लड़की के विवाह के बाद दाम्पत्य जीवन में हानि होती थी। किसी भी कन्या के जन्म के समय यदि रविवार का दिन हो, “द्वितीया तिथि” पड़ रही हो व “आश्लेषा” या “शतभिषा नक्षत्र” हों तो इन योगों के मध्य जन्म लेने वाली कन्या को ‘विषकन्या योग’ में माना गया है। अन्य दिनों में यदि बालिका का जन्म सप्तमी तिथि हो, मंगलवार का दिन हो, आश्लेषा, बिशाखा या विशाखा नक्षत्र हों, तब भी ‘विषकन्या योग’ होता है। ऐसी कन्याओं से लोग विवाह करने के लिए माना कर देते थे। क्योकि उनका मानना था, कि ऐसी कन्याओं से विवाह करने पर उसके पति की मृत्यु हो जायेगी। उस समय कुँवारी कन्याओं को घर में बैठाकर खाना-खिलना भी लोग पाप समझते थे। इसलिए ऐसी कन्याओं को विषकन्या बनने के लिए राजा की सेवा में भेज दिया जाता था। 
जिस लडक़ी को विषकन्या बनाना होता था उसको बचपन से थोड़ी-थोड़ी मात्रा में जहर दिया जाता था। जवान होने तक ये लड़कियां बहुत ही ज्यादा जहरीली बन जाती थी। इनके नाखून तथा दांतों में जहर भर जाता था। इसके अलावा इनको विषैले वृक्ष और कीड़े-मकोड़ों के बीच रखा जाता था। कुछ कन्याओं की इस दौरान मृत्यु हो जाती थी, केवल कुछ ही इस परीक्षा को उत्तीर्ण कर पाती थीं। इसके अलावा विषकन्याओं को गायन, नृत्य और संगीत की शिक्षा भी जाती थी, और सभी प्रकार की छल विद्याओं में माहिर बनाया जाता है, ताकि वे इनका इस्तेमाल करके शत्रु राजा को छलपूर्वक मृत्यु के घाट उतारा जा सके। विषकन्याओं का श्वास और मुंह की लार बहुत जहरीली होता थी, चुम्बन के ज़रिये ये अपने शत्रु के शरीर में विष पहुँचा सकती थी। इन लड़कियों को नृत्य तथा जासूसी में प्रवीण बनाया जाता था। इनका अहम कामकाज जासूसी करना होता था और मौका मिलते ही ये दुश्मन को मौत के घाट उतार देती थी। “कल्किपुराण” में भी विषकन्याओं का उल्लेख मिलता हैं। इसमें विषकन्याओं को “कांधली” कहा गया हैं। प्राचीन भारत में ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर अगर देखा जाए देखा जायें तो विषकन्याओं का जीवन बहुत दुखदायी और दर्दीला होता था। क्योकि ये न तो विवाह कर सकती थी और न ही किसी विवाह उत्सव में शामिल हो सकती थीं। इनका जीवन सबसे अलग-थलग और एकांतमय होता था। निष्कर्ष के तौर पर अगर देखा जाए तो “विषकन्या” का जीवन ज्योतिष के नकारात्मक पहलू का एक भयानक परिणाम था, जिसके आधार पर न जाने कितनी कन्याओं को अपनी बलि देना पड़ी थी।